Sanskrit Ch - सुभाषितानि ( 8A, B )
DATE - 6/4/21
DAY - TUESDAY
GRADE- 8 A, B
Topic Taught - सुभाषितानि
Explanation done of 1-4 paragraph.
Homework - पहले दस शब्दार्थ लिखें और एक से चार श्लोकों के अर्थ भी लिखें
(क) गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति
ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः ।
सुस्वादुतोयाः प्रभवन्ति नद्यः
समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेयाः ॥1॥
सरलार्थ : गुण गुणवान व्यक्तियों में गुण होते हैं किंतु गुणहीन व्यक्ति को पाकर वे (गुण) दोष बन जाते हैं। नदियाँ स्वादिष्ट जल से युक्त ही (पर्वत से) निकलती हैं। किन्तु समुद्र तक पहुँचकर वे पीने योग्य नहीं रहती।
भाव : संगति में गुण विकसित होते हैं किंतु कुसंगति में वही गुण दोष स्वरूप बन जाते हैं।
(ख) साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः
साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ।।
तृणं न खादन्नपि जीवमानः
तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥ 2 ॥
सरलार्थ : साहित्य, सङ्गीत व कला-कौशल से हीन व्यक्ति वास्तव में पूँछ तथा सींग से रहित पशु है जो घास न खाता हुआ भी (पशु की भाँति) जीवित है। वह तो (उन असभ्य पशु समान मनुष्यों) पशुओं का परम सौभाग्य है (कि घासफूस न खाकर अपितु स्वादिष्ट व्यञ्जन खाते हैं)।
भाव : साहित्य में अभिरुचि संगीत आदि कलाओं में कौशल से ही मनुष्य मनुष्य बनता है, अन्यथा वह पशु का-सा ही जीवन जीता रहता है।
ग्) लुब्धस्य नश्यति यशः पिशुनस्य मैत्री
नष्टक्रियस्य कुलमर्थपरस्य धर्मः ।।
विद्याफलं व्यसनिनः कृपणस्य सौख्यं
राज्यं प्रमत्तसचिवस्य नराधिपस्य ॥ 3 ॥
सरलार्थ : लालची व्यक्ति का यश, चुगलखोर की दोस्ती, कर्महीन का कुल, अर्थ/धन को अधिक महत्त्व देने वाले का धर्म अर्थात् धर्मपरायणता, बुरी आदतों वाले का विद्या का फल अर्थात् विद्या से मिलने वाला लाभ, कंजूस का सुख और प्रमाद करने वाले मन्त्री युक्त राजा को राज्य/सत्ता नष्ट हो जाता/जाती है।
भाव : यदि यश चाहिए तो व्यक्ति लालच न करे, मित्रता चाहिए तो चुगलखोर न हो, धर्माचरण करना हो तो धन लाभ को अधिक महत्त्व न दे, विद्या का फल प्राप्त करना हो तो बुरी आदतों से बचे। जीवन में सुख चाहिए तो कंजूस न हो और सत्ता को बनाए रखना हो तो मन्त्री कर्तव्य के प्रति लापरवाह न हो। |
घ) पीत्वा रसं तु कटुकं मधुरं समानं
माधुर्यमेव जनयेन्मधुमक्षिकासौ ।
सन्तस्तथैव समसज्जनदुर्जनानां
श्रुत्वा वचः मधुरसूक्तरसं सृजन्ति ॥4॥
सरलार्थ : जिस प्रकार यह मधुमक्खी मीठे अथवा कड़वे रस को एक समान पीकर मिठास ही उत्पन्न करती है, उसी प्रकार सन्त लोग सज्जन व दुर्जन लोगों की बात एक समान सुनकर सूक्ति रूप रस का सृजन करते हैं।
भाव : सन्त लोग सज्जन और दुर्जन में भेदभाव न कर दोनों की बात सुनकर अच्छी बातें कहते हैं, जिस प्रकार मधुमक्खी मीठा अथवा कड़वा दोनों रस एक समान पीकर मधु का ही निर्माण करती है।
DATE - 13 /4 / 21
DAY - TUESDAY
GRADE- 8 A, B
Topic Taught - सुभाषितानि
Homework- अंतिम तीन श्लोकों के अर्थ और एकपदेन उत्तरत लिखें
(ङ) विहाय पौरुषं यो हि दैवमेवावलम्बते ।।
प्रासादसिंहवत् तस्य मूर्ध्नि तिष्ठन्ति वायसाः ॥ 5 ॥
सरलार्थ : जो व्यक्ति निश्चय से पुरुषार्थ छोड़कर भाग्य का ही सहारा लेते हैं। महल के द्वारा पर बने हुए नकली सिंह (शेर) की तरह उनके सिर पर कौए बैठते हैं।
भाव : व्यक्ति को कभी भी अपने भाग्य पर निर्भर नहीं होना चाहिए बल्कि सदैव अपना पुरुषार्थ करते रहना चाहिए। भाग्य पर भरोसा करने वाला ऐसा व्यक्ति सदैव दिखावा ही करता है।
च) पुष्पपत्रफलच्छायामूलवल्कलदारुभिः ।।
धन्या महीरुहाः येषां विमुखा यान्ति नार्थिनः ॥6॥
सरलार्थ : फूल-पत्ते-फल-छाया-जड़-छाल और लकड़ियों से (के कारण) वृक्ष धन्य होते हैं, जिनसे माँगने वाले (कभी) विमुख (निराश/वापस) नहीं होते हैं।
भावः वृक्ष सदैव परोपकार करते हैं। वे अपने शरीर के अंगों से सदैव लोगों का भला ही करते रहते हैं। हमें भी वृक्षों की तरह हर प्रकार से लोगों की ही नहीं अपितु समस्त जीवों की सेवा करनी चाहिए।
(छ) चिन्तनीया हि विपदाम् आदावेव प्रतिक्रियाः।
न कूपखनेनं युक्तं प्रदीप्ते वह्निना गृहे ॥7॥
सरलार्थ : निश्चय से विपत्तियों (मुसीबतों) का शुरुआत में ही इलाज (समाधान) सोचना चाहिए। आगे से घर के जलने पर कुआँ खोदना उचित नहीं होता है।
भाव : प्रत्येक मनुष्य को समस्या का प्रारम्भ से ही समाधान ढूँढ़कर रखना चाहिए। जिससे यदि समस्या आती है तो वह मुसीबत (दु:ख का कारण) न बन जाए। इसी में मनुष्य की भलाई है। समस्या सामने आ जाने पर समाधान ढूंढना उचित नहीं होता है।
प्रश्नानाम् उत्तराणि एकपदेन लिखत-(प्रश्नों के उत्तर एक पद में लिखिए-)
(क) व्यसनिन: किं नश्यति?
(ख) कस्य यशः नश्यति?
(ग) मधुमक्षिका किं जनयति?
(घ) मधुरसूक्तरस के सृजन्ति?
(ङ) अर्थिनः केभ्यः विमुखा न यान्ति।
उत्तरम्:
(क) विद्याफलम्,
(ख) लुब्धस्य,
(ग) माधुर्यम्,
(घ) सन्तः
(ङ) महीरुहेभ्यः